13-Sep-2022 09:38 PM
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नयी दिल्ली, 13 सितंबर (संवाददाता) उच्चतम न्यायालय में मंगलवार की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईड्ब्ल्यूएस) के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 10 फ़ीसदी आरक्षण देने का प्रावधान करने वाले 103वें संविधान संशोधन को संविधान के साथ धोखाधड़ी करार दिया।
मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी तथा न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला की संविधान पीठ के समक्ष कुछ याचिकाकर्ताओं का पक्ष रख रहे वरिष्ठ वकील जी मोहन गोपाल ने दावा किया कि 103वां संविधान संशोधन सामाजिक न्याय की संवैधानिक दृष्टि पर हमला है।
एनजीओ ‘जनहित अभियान’ और अन्य ने 2019 में अधिनियमित 103 वें संवैधानिक संशोधन की वैधता को चुनौती दी थी। इस संशोधन के माध्यम से अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का प्रावधान है।
श्री गोपाल ने कई दलीलों के माध्यम से आरक्षण का जोरदार विरोध करते हुए इसे देश को जाति के आधार पर विभाजित करने के अलावा संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत के खिलाफ बताया।
उन्होंने तर्क प्रस्तुत किया कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को बाहर करता है। केवल अगड़ी जातियों को ही लाभ देता है। आरक्षण के इस प्रावधान से सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है।
उन्होंने कहा कि अगर यह वास्तव में एक आर्थिक आरक्षण होता तो यह गरीब लोगों को उनकी जाति के बावजूद दिया जाता।
श्री गोपाल ने शीर्ष अदालत के समक्ष कहा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण ने वंचित समूहों के प्रतिनिधित्व के साधन के रूप में आरक्षण की अवधारणा को उलट दिया और इसे वित्तीय उत्थान के लिए एक योजना में बदल दिया। उन्होंने कहा,“हमें 103वें संशोधन को संविधान पर हमले के रूप में देखना चाहिए।”
उन्होंने यह भी कहा कि आरक्षण केवल प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है ताकि यह अवसर में समानता को न समाप्त करे जोकि पिछड़े वर्गों की चिंता है।
श्री गोपाल ने कहा, “हमें आरक्षण में कोई दिलचस्पी नहीं है... हमें प्रतिनिधित्व में दिलचस्पी है। अगर कोई आरक्षण से बेहतर प्रतिनिधित्व का तरीका आता है तो हम उसे स्वीकार कर सकते हैं।...////...