कव्वाली को संगीतबद्ध करने में महारत हासिल थी रोशन को
15-Nov-2024 04:40 PM 8529
मुंबई, 16 नवंबर (संवाददाता) हिंदी फिल्मों में जब कभी कव्वाली का जिक्र होता है तो संगीतकार रोशन का नाम सबसे पहले लिया जाता है। हालांकि रोशन ने फिल्मों में हर तरह के गीतों को संगीतबद्ध किया है, लेकिन कव्वालियों को संगीतबद्ध करने में उन्हें महारत हासिल थी।वर्ष 1960 में प्रदर्शित सुपरहिट फिल्म ‘बरसात की रात’ में यूं तो सभी गीत लोकप्रिय हुए, लेकिन रोशन के संगीत निर्देशन में मन्ना डे और आशा भोंसेले की आवाज में साहिर लुधियानवी रचित कव्वाली ‘ना तो कारंवा की तलाश’ और मोहम्मद रफी की आवाज में ‘ये इश्क इश्क है’ आज भी श्रोताओं के दिलों में अपनी अमिट छाप छोड़े हुए हैं।वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म ‘दिल ही तो है’ में आशा भोंसले और मन्ना डे की युगल आवाज में रौशन की संगीतबद्ध कव्व्वाली ‘निगाहें मिलाने को जी चाहता है’ आज जब कभी भी फिजाओं में गूंजता है तब उसे सुनकर श्रोता अभिभूत हो जाते है ।14 जुलाई, 1917 को तत्कालीन पश्चिमी पंजाब के गुजरावालां शहर (अब पाकिस्तान में) में एक ठेकेदार के घर में जन्मे रोशन का ध्यान बचपन से ही अपने पिता के पेशे की और न होकर संगीत की ओर था।संगीत की ओर रूझान के कारण रौशन अक्सर फिल्म देखने जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने एक फिल्म ‘पुराण भगत’ देखी। फिल्म में गायक सहगल की आवाज में एक भजन रौशन को काफी पसंद आया। इस भजन से वह इतने ज्यादा प्रभावित हुए कि उन्होंने यह फिल्म कई बार देख डाली। ग्यारह वर्ष की उम्र आते-आते उनका रुझान संगीत की ओर हो गया और वह उस्ताद मनोहर बर्वे से संगीत की शिक्षा लेने लगे।मनोहर बर्वे स्टेज के कार्यक्रम को भी संचालित किया करते थे उनके साथ रोशन ने देश भर में हो रहे स्टेज कार्यक्रमों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। मंच पर जाकर मनोहर बर्वे जब कहते कि ‘अब मैं आपके सामने देश का सबसे बड़ा गवइयां पेश करने जा रहा हूं’ तो रोशन मायूस हो जाते क्योंकि ‘गवइया शब्द उन्हें पसंद नहीं था। उन दिनों तक रौशन यह तय नही कर पा रहे थे कि गायक बना जाए या फिर संगीतकार। कुछ समय के बाद रोशन घर छोड़कर लखनऊ चले गए और ‘मॉरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक’ में प्रधानाध्यापक रतन जानकर से संगीत सीखने लगे।लगभग पांच वर्ष तक संगीत की शिक्षा लेने के बाद रोशन मैहर चले आए और उस्ताद अल्लाउदीन खान से संगीत की शिक्षा लेने लगे। एक दिन अल्लाउदीन खान ने रोशन से पूछा, ‘तुम दिन में कितने घंटे रियाज करते हो।’ रौशन ने गर्व के साथ कहा, दिन में दो घंटे और शाम को दो घंटे। यह सुनकर अल्लाउदीन खान बोले यदि तुम पूरे दिन में आठ घंटे रियाज नहीं कर सकते हो तो अपना बोरिया बिस्तर उठा कर यहां से चले जाओ।इन सबके बीच रोशन ने बुंदु खान से सांरगी की शिक्षा भी ली। रोशन ने वर्ष 1940 में आकाशवाणी केंद्र दिल्ली में बतौर संगीतकार अपने करियर की शुरुआत की। वर्ष 1949 में फिल्मी संगीतकार बनने का सपना लेकर रोशन दिल्ली से मुंबई आ गए। मायानगरी मुंबई में एक वर्ष तक संघर्ष करने के बाद उनकी मुलाकात जाने माने निर्माता निर्देशक केदार शर्मा से हुई।रोशन के संगीत बनाने के अंदाज से प्रभावित केदार शर्मा ने उन्हें अपनी फिल्म ‘नेकी और बदी’ में बतौर संगीतकार काम करने का मौका दिया। अपनी इस पहली फिल्म के जरिए भले ही रोशन सफल नहीं हो पाए, लेकिन गीतकार के रूप में उन्होंने अपने सिने कैरियर के सफर की शुरुआत अवश्य कर दी।वर्ष 1950 में एक बार फिर रोशन को केदार शर्मा की फिल्म ‘बावरे नैन’ में काम करने का मौका मिला। फिल्म ‘बावरे नैन में मुकेश के गाए गीत ‘तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं’ की कामयाबी के बाद रोशन फिल्मी दुनिया मे संगीतकार के तौर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहे।रोशन के संगीतबद्ध गीतों को सबसे ज्यादा मुकेश ने अपनी आवाज दी थी। गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ रौशन की जोड़ी खूब जमी। इन दोनों की जोड़ी के गीत-संगीत ने श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। इन गीतों में ‘ना तो कारवां की तलाश है’, ‘जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात’, ‘लागा चुनरी में दाग’, ‘जो बात तुझमें है’, ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’, ‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’, जैसे मधुर नगमें शामिल हैं।रोशन को वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म ‘ताजमहल’ के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। हिन्दी सिने जगत को अपने बेमिसाल संगीत से सराबोर करने वाले रोशन 16 नवंबर 1967 को सदा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गए।...////...
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